Sunday, November 13, 2016

14 नवम्बर बाल दिवस (नेहरु जी )

बाल दिवस(नेहरु जी)

बाल दिवस मुख्य रूप से नेहरु जी के जन्म दिन के उपलक्ष में मनाया जाता है, उसका कारण यह है की नेहरु जी बच्चो बहुत प्यार करते थे, इस लिए नेहरु जी के जयंती को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता l नेहरु जी का पूरा नाम प. जवाहर लाल नेहरु है. नेहरु जी को बच्चे प्यार से चाचा नेहरु बोला करते थे, तो चलो उनके जीवन के बारे में जानते है l

जन्म

नेहरु जी का जन्म इलाहाबाद में 14 नवम्बर 1889 को हुआ l नेहरु कश्मीरी ब्राह्मण परिवार के थे , जो विद्वत्ता और अपनी प्रशासनिक क्षमताओं के लिए विख्यात थे और जो 18 वींशताव्दी के आरंभ में इलाहबाद आ गये थे l नेहरु जी के पिता का नाम पं. मोतीलाल नेहरु और माता का नाम श्रीमती स्वरूप रानी था l वे अपने माता पिता के अकलोते पित्र थे उसके अलावा उनकी दो बहने थी l और नेहरु जी सबसे बड़े थे l उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं l

शिक्षा

नेहरु जी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई l जैसे की नेहरु जी धनी परिवार से थे तो उनके लिए किसी चीज की कोई कमी नही थी l 14 वर्ष तक नेहरु जी की शिक्षा उनके घर पर कई अंग्रेजी अध्यापकों और शिक्षकों के द्वारा हुई l इनमें से सिर्फ एक, फर्डिनैंड ब्रुक्स का, जो आधे आयरिश और आधे बेल्जियन अध्यात्मज्ञानी थे, उन का प्रभाव पड़ा l नहेरु जी के एक ऐसे शिक्षक थे जो उन्हें हिंदी और संस्कृत पढ़ाते थे, 15 वर्ष की उम्र में 1905 में नेहरु को अक अग्रणी अंग्रेजी विद्यालय हैरो स्कूल में भेजा गया , जो इंग्लेंड में है l वह उन्होंने 2 वर्ष पढाई की, और उसके बाद वह केंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गये, प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि उन्होंने इसी स्कूल से प्राप्त की, उनके विषय रसायनशास्त्र, भूगर्भ विधा और वनस्पति शास्त्र थे l उसके बाद लंदनके इनर टेंपल में दो वर्ष बिताकर उन्होंने वकालत की पढाई शुरु की l 

परिवार 

अपनी वकालत की पढाई पूरी करने के बाद वे भारत लौटे और चार साल बाद मार्च 1916 में नेहरु जी का विवाह कमला कौल के साथ हुआ, जो दिल्ली में बसे कश्मीरी परिवार की थी l 1917 में उनकी एक पुत्री हुई जिसका नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी पड़ा, जो उनकी इकलोती सन्तान थी,  इंदिरा प्रियदर्शिनी के विवाह के बाद नाम इंदिरा गाँधी हुआ , जो भारत की प्रधानमंत्री बनीं l 

वकील के रूप में 

1912 ई. में वे बैरिस्टर बने और उसी वर्ष भारत लौटकर उन्होंने इलाहाबाद में वकालत प्रारम्भ की। वकालत में उनकी विशेष रुचि न थी और शीघ्र ही वे भारतीय राजनीति में भाग लेने लगे। 1912 ई. में उन्होंने बाँकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। भारत लौटने के बाद नेहरू ने पहले वकील के रूप में स्थापित होने का प्रयास किया लेकिन अपने पिता के विपरीत उनकी इस पेशे में कोई ख़ास रुची नहीं थी और उन्हें वकालत और वकीलों का साथ, दोनों ही नापसंद थे। उस समय वह अपनी पीढ़ी के कई अन्य लोगों की भांति भीतर से एक ऐसे राष्ट्रवादी थे l 

राजनीत में कदम 

भारत लौटने के बाद नेहरू ने पहले वकील के रूप में स्थापित होने का प्रयास किया लेकिन अपने पिता के विपरीत उनकी इस पेशे में कोई ख़ास रुची नहीं थी और उन्हें वकालत और वकीलों का साथ, दोनों ही नापसंद थे। उस समय वह अपनी पीढ़ी के कई अन्य लोगों की भांति भीतर से एक ऐसे राष्ट्रवादी थे, जो अपने देश की आज़ादी के लिए बेताब हो, लेकिन अपने अधिकांश समकालीनों की तरह उसे हासिल करने की ठोस योजनाएं न बना पाया हो।
1916 ई. के लखनऊ अधिवेशन में वे सर्वप्रथम महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आये। गांधी उनसे 20 साल बड़े थे। दोनों में से किसी ने भी आरंभ में एक-दूसरे को बहुत प्रभावित नहीं किया। बहरहाल, 1929 में कांग्रेस के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने तक नेहरू भारतीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में नहीं आ पाए थे। इस अधिवेशन में भारत के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में संपूर्ण स्वराज्य की घोषणा की गई। उससे पहले मुख्य लक्ष्य औपनिवेशिक स्थिति की माँग था। नेहरू जी के शब्दों में:-

कुटिलता की नीति अन्त में चलकर फ़ायदेमन्द नहीं होती। हो सकता है कि अस्थायी तौर पर इससे कुछ फ़ायदा हो जाए। अगर हम इस देश की ग़रीबी को दूर करेंगे, तो क़ानूनों से नहीं, शोरगुल मचाके नहीं, शिकायत करके नहीं, बल्कि मेहनत करके। एक-एक आदमी बूढ़ा और छोटा, मर्द , औरत और बच्चा मेहनत करेगा। हमारे सामने आराम नहीं है।
नेहरू की आत्मकथा से भारतीय राजनीति में उनकी गहरी रुचि का पता चलता है। उन्हीं दिनों अपने पिता को लिखे गए पत्रों से भारत की स्वतंत्रता में उन दोनों की समान रुचि दिखाई देती है। लेकिन गांधी से मुलाक़ात होने तक पिता और पुत्र में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए निश्चित योजनाओं का विकास नहीं हुआ था। गांधी ने उन्हें राजनीति में अपना अनुयायी बना लिया। गांधी द्वारा कर्म पर बल दिए जाने के गुण से वह दोनों प्रभावित हुए। महात्मा गांधी का तर्क था कि ग़लती की सिर्फ़ निंदा ही नहीं, बल्कि प्रतिरोध भी किया जाना चाहिए। इससे पहले नेहरू और उनके पिता समकालीन भारतीय राजनीतिज्ञों का तिरस्कार करते थे, जिनका राष्ट्रवाद, कुछ अपवादों को छोड़कर लंबे भाषणों और प्रस्तावों तक सीमित था। गांधी द्वारा ग्रेट ब्रिटेन के ख़िलाफ़ बिना भय या घृणा के लड़ने पर ज़ोर देने से भी जवाहरलाल बहुत प्रभावित हुए।



जेल की यात्रा

कांग्रेस पार्टी के साथ नेहरू का जुड़ाव 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के तुरंत बाद आरंभ हुआ। इस काल में राष्ट्रवादी गतिविधियों की लहर ज़ोरों पर थी और अप्रैल 1919 को अमृतसर के नरसंहार के रूप में सरकारी दमन खुलकर सामने आया; स्थानीय ब्रिटिश सेना कमांडर ने अपनी टुकड़ियों को निहत्थे भारतीयों की एक सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया, जिसमें 379 लोग मारे गये और कम से कम 1,200 घायल हुए। नेहरू जी के शब्दों में:-
भारत की सेवा का अर्थ, करोड़ों पीड़ितों की सेवा है। इसका अर्थ दरिद्रता और अज्ञान, और अवसर की विषमता का अन्त करना है। हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा रही है-कि प्रत्येक आँख के प्रत्येक आँसू को पोंछ दिया जाए। ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आँसू हैं और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा।


प्रधानमंत्री के रूप में उपलब्धियाँ

1929 में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था, तब से 35 वर्षों तक- 1964 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मृत्यु तक, 1962 में चीन से हारने के बावजूद, नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे। राजनीति के प्रति उनका धर्मनिरपेक्ष रवैया गांधी के धार्मिक और पारंपरिक दृष्टिकोण से भिन्न था। गांधी के विचारों ने उनके जीवनकाल में भारतीय राजनीति को भ्रामक रूप से एक धार्मिक स्वरूप दे दिया था। गांधी धार्मिक रुढ़िवादी प्रतीत होते थे, किन्तु वस्तुतः वह सामाजिक उदारवादी थे, जो हिन्दू धर्म को धर्मनिरपेक्ष बनाने की चेष्ठा कर रहे थे। गांधी और नेहरू के बीच असली विरोध धर्म के प्रति उनके रवैये के कारण नहीं, बल्कि सभ्यता के प्रति रवैये के कारण था। जहाँ नेहरु लगातार आधुनिक संदर्भ में बात करते थे। वहीं गांधी प्राचीन भारत के गौरव पर बल देते थे। 

मृत्यु

चीन  के साथ संघर्ष के कुछ ही समय बाद नेहरू के स्वास्थ्य में गिरावट के लक्षण दिखाई देने लगे। उन्हें 1963 में दिल का हल्का दौरा पड़ा, जनवरी 1964 में उन्हें और दुर्बल बना देने वाला दौरा पड़ा। कुछ ही महीनों के बाद तीसरे दौरे में 27 मई 1964 में उनकी मृत्यु हो गई।



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