हरेला, हर्याल या हरायाब त्यौहार -
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यह पर्व श्रावण संक्रांति अर्थात कर्क संक्रांति को मनाया जाता है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह सोलह जुलाई को होता है। यदा कदा ग्रहों की गणना से एक दिन का अंतर हो जाता है। इससे १० दिन पूर्व लोग घरों में पूजा स्थान में किसी जगह या छोटी डलियों में मिट्टी बिछा कर सात प्रकार के बीज जैसे- गेंहूँ, जौ, मूँग, उरद, भुट्टा, गहत, सरसों आदि बोते हैं और नौ दिनों तक उसमें जल आदि डालते हैं। बीज अंकुरित हो बढ़ने लगते हैं।
हर दिन सांकेतिक रूप से इनकी गुड़ाई भी की जाती है दसवें दिन कटाई। यह सब घर के बड़े बुज़ुर्ग या पंडित करते हैं। पूजा नैवेद्य आरती का विधान भी होता है। कई तरह के पकवान बनते हैं। इन हरे-पीले रंग के तिनकों को देवताओं को अर्पित करने के बाद घर के सभी लोगों के सर पर या कान के ऊपर रखा जाता है घर के दरवाजों के दोनों ओर या ऊपर भी गोबर से इन तिनकों को सजाया जाता है। कुँवारी बेटियां बड़े लोगो को पिठ्या (रोली) अक्षत से टीका करती हैं और भेंट स्वरुप कुछ रुपये पाती हैं। बड़े लोग अपने से छोटे लोगों को इस प्रकार आशीर्वाद देते हैं।
जी रया जागि रया
आकाश जस उच्च, धरती जस चाकव है जया
स्यावै क जस बुद्धि, सूरज जस तराण है जौ
सिल पिसी भात खाया जाँठि टेकि भैर जया
दूब जस फैलि जया...
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इस त्योहार की एक अन्य विशेषता यह है कि पूजा के लिए घरों की महिलाएँ या कन्याएँ मिट्टी की मूर्तियाँ बनाती हैं जिन्हें डिकार या डिकारे कहा जाता है। लाल या चिकनी मिट्टी से ये मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। इसमें शिव, पार्वती, उनके पुत्र यानि शिव परिवार के सदस्य और उनके वाहन भी शामिल होते हैं। माना यह भी जाता है कि इसी माह में शिव पार्वती का विवाह हुआ। दूसरा कारण यह भी है कि पारिवारिक सुख शांति त्रिदेवों में शिव शंकर के पास ही है और उनकी कृपा से सभी की मनोकामना पूरी होती है।
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तीज त्योहार यों तो आपसी मेल मिलाप, हँसी ख़ुशी से मनाये ही जाते हैं और लोगों को इसीलिए इनकी प्रतीक्षा भी रहती है लेकिन हरेले के त्योहार को मनाने का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पक्ष भी है। यह हमारे कृषि आधारित प्रदेश की उस सोच को उजागर करता है जब वैज्ञानिक प्रयोगशालाएँ नहीं होती थी और उपजाऊ बीज परीक्षण की सुविधा भी उपलब्ध नहीं होती थी। तब फसलों की बुआई से पहले हर घर में विविध बीज बो कर परीक्षा हो जाती कि फसल कैसी होगी ? फसल अच्छी हो इसलिए पहले मनोकामना की पूर्ति के लिए पूजा-पाठ आदि से कार्य का आरम्भ होता था। सब लोगों में मिलजुल कर काम करने कि प्रवृति होती थी। अच्छे बीजों, उपकरणों, हल- बैलों का मिलकर उपयोग करते थे। अभी भी उत्तराखंड के गावों में सब मिलकर बारी बारी से सब के खेतों में बुआई, रोपाई, गुड़ाई कटाई आदि कार्य संपन्न करते हैं। इस दिन लोग अपने खेतों ,बगीचों और घर के आस-पास वृक्ष भी लगाते हैं। हरेले के दिन पंडित भी अपने यजमानों के घरों में पूजा आदि करते हैं और सभी लोगो के सर पर हरेले के तिनकों को रखकर आशीर्वाद देते हैं। लोग परिवार के उन लोगों को जो दूर गए हैं या रोज़गार के कारण दूरस्थ हो गए हैं उन्हें भी पत्रद्वारा हरेले का आशीष भेजते हैं।
कुमायूँ में हरेला साल में तीन बार मनाया जाता है- १- चैत्र: चैत्र मास के प्रथम दिन बोया जाता है और नवमी को काटा जाता है, २- श्रावण: श्रावन लगने से नौ दिन पहले अषाढ़ में बोया जाता है और १० दिन बाद काटा जाता है तथा ३-आशिवन: आश्विन नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरे के दिन काटा जाता है। आजकल समय का अभाव, विचारों का बदलाव, शहरीकरण और पलायन की मार...। इन त्योहारों को भी विलुप्ति के कगार पर पहुँचा रही हैं। हमें अपनी उन परम्पराओं को नहीं भूलना चाहिए जो हमारे सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और वैज्ञानिक आधार को मज़बूत बनाती हैं।
happy harela
दोस्तों आप को ये पोस्ट कैसी लगी कमेंट करके हमे जरुर बताये . और इस ब्लॉग से जुड़े रहने के लिए google + पर follow करे . इस पोस्ट को अपने दोस्तों के साथ जरुर share करे . कियोंकि share करने से ही बढता है.
thanks
Really amzing bro. Keep it up.
ReplyDeletethex rakesh g keep visiting
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